Loading...
Jay Shri Krishna Jay Sudama

A True Friensdhip Story

श्री सुदामा चरित्र संपूर्ण कथाचरित्र

सुदामा चरित्र श्रीमद्भागवत का एक बहुत महत्वपूर्ण प्रसंग सुदामा चरित्र लिखना प्रारम्भ कर रहा हुँ । यथासम्भव लेखन का प्रयास रहेगा ,आप सब से विनम्र निवेदन है कि कथा की त्रुटिओ पर ध्यान आकर्षित कराते रहेगें ।सज्जनो वह वाणी धन्य है जो भगवान का गुण वर्णन करती है ।वही हाथ सच्चा हाथ है जो भगवान की सेवा करता है ,वही सच्चा मन है जो जड चेतन सभी मे परमात्मा का दर्शन करता है , वही कान सच्चे है जो भगवान की पबित्र कथाओ को श्रवण करते है ।

राजा परीक्षित शुकदेव जी महराज से कहते है गुरुदेव वैसे तो भगवान के अनन्त नाम है ,मुझे इनका एक नाम बहुत पसन्द आया वह है दीनबन्धु महराज भगवान का यह नाम क्यूँ पडा? क्या भगवान कृष्ण ने किसी दीन हीन को भी अपना बन्धु बनाया था क्या?श्री शुकदेव जी महराज को सुदामा जी याद आ गये ।

मित्रो राजा परीक्षित को कथा श्रवण कराते समय श्री शुकाचार्य जी महराज दो बार समाधिस्थ हो गये थे ।एक ब्रम्हा मोह लीला मे दूसरी बार सुदामा का प्रसंग आने पर।बचपन के दो मित्र गुरुकुल से बिदा होने के बाद अलग अलग राह पर चल पडे। एक मथुरा और उसके बाद द्वारिकाधीस बन गया दूसरा घर गृहस्थी बसा करके भगवान का परम भक्त बन गया।

परमभागवत श्री सुदामा जी का पावन परिचय देते समय श्री शुकदेव जी महराज कहते है कि राजन भगवान कृष्ण के परम प्रिय अभिन्न हृदय मित्र श्रीसुदामा जी महराज है।कृष्णस्यासीत् सखा कश्चिद् ब्राम्हणो ब्रम्हवित्तमःविरक्त इन्द्रियार्थेषु प्रशानतात्मा जितेन्द्रियः श्री शुकदेव जी महराज ने सुदामा के लिये इतने विशेषता के विशेषण गिना दिये कि मूल परिचय देना ही भूल गये । न नाम बताया,न काम बताया,न धाम बताया केवल उनकी विशेषता बतायी। कैसे है सुदामा? ब्राम्हणो ब्रम्हवित्तमः ये ब्रम्ह बेत्ता ब्राम्हण है,परम श्रेष्ठ ब्रम्हज्ञानी है।

इन्द्रियो के विषयो से एकदम विरक्त रहने वाले ब्राम्हण है। जिसका चित्त कभी अशान्त नही होता वह ऐसे प्रशान्त आत्मा है। इतने पर भी सन्तुष्टि नही हुई तो जितेन्द्रियः, जिसकी इन्द्रिया सर्वथा उसके वशीभूत हो इनता सुन्दर परिचय दिया है और जब पत्नी का परिचय दिया तो पति के विपरीत परिचय यदृच्छयोपपन्नेन वर्तमानो गृहाश्रमीतस्य भार्या कुचैलस्य क्षुत्क्षात्मा च तथाविधा शुशीला परम पतिब्रता तो थी, परन्तु दरिद्र बहुत थी।

बहुत ध्यान देने वाली बात है यहाँ पर सुदामा को दरिद्र नही कहा फिर शुसीला को क्यूँ कहा? जब पति दरिद्र नही तो पत्नी कैसे? पतिदेव डाक्टर तो अनपढ पत्नी को डाक्टरनी कहा जाता है तो यहाँ पर विपरीत क्यूँ ?मित्रो भागवत जी का सूत्र है दरिद्रो यस्त्वसंतुष्टः जो असन्तुष्ट रहता है वही दरिद्र है ।सुदामा जी तो प्रत्येक परिस्थित मे सन्तुस्ट है ।भोजन प्रसादी मिला तब भी ,नही मिला तब भी ,कुछ है तब भी ,घर मे फांके है तब भी ।पर जो गृहलक्ष्मी होती है उसे आपकी भी चिन्ता होती है ,बच्चो की भी चिन्ता होती है ।

शुसीला को घर की चिन्ता लगी रहती थी ,घर की आवश्यकताओ से चिंतित रहती थी ।दोनो का जीवन किसी तरह से चल रहा था । सुदामा जी का जीवन यापन का एकमात्र  आसरा था खेतो मे कटाई के बाद गिरे हुये दानो को बीनकर गुजारा करना । सुदामा ने कभी भिक्षा नही माँगी । ब्राम्हण दान लेता है पर भिक्षा नही माँगता ,भिक्षा माँगने वाले के अन्दर  ब्राम्हणत्व नही रह जाता । सुदामा जी का नियम था सुबह से शाम तक हरि भजन करना ,खेतो मे जाकर शिलावृत्ति करना ।

एक बार कई दिनो तक घर मे अन्न का एक दाना भी नही रहा । कभी जल पीकर ,कभी कुछ प्राकृतिक फल को खाकर गुजारा कर रहे थे । एक दिन रात्रि मे सुदामा जी लेटे है शुशीला उनके पैरो को दबा रही हैै ,और आज अचानक सुदामा जी ने अपनी और अपने बचपन के सखा की कथा अपनी पत्नी को बताने लगे –कही सुदामा एक दिन कृष्ण हमारे मित्रकरत रहत उपदेश तिय ऐसो परम बिचित्र सुदामा जी अपनी पत्नी शुशीला से कहते है प्रिये ! जब हम बचपन मे पढते थे तो मेरी मित्रता एक राजकुमार से हुई ।

पहले तो मुझे मालुम नही था लेकिन बाद मे पता चला कि वही मेरे आराध्य देव है । वो इतने बडे घर के राजकुमार और मै एक गरीब ब्राम्हण ।लेकिन उन्होने कभी मुझे गरीब होने का अहसास नही होने दिया । गुरु जी जो भी कार्य करने के लिये कहते वे मेरे हिस्से का भी कार्य कर देते थे ।तुम जानती हो हम जिनकी सुबह शाम आराधना किया करते है वो जगदीश्वर आजकल द्वारिकाधीस बने है । मुझे अभी भी विश्वास है कि अगर इतने दिनो बाद भी मिले तो वो मुझे वही सम्मान देंगे जो गुरुकुल मे मुझे दिया करते थे ।

मुझे उनकी एक बात सदा याद रहती है  कुछ भी हो जाय बिना मुझे भोजन कराये वो कभी भोजन नही करते थे । आज जैसे ही सुदामा जी ने भोजन की चर्चा की शुशीला सोचने लगी आज चार दिन हो गये घर मे अन्न का दाना भी नही है । आजकल फल का भी मौसम नही चल रहा है । बच्चे भूँख से व्याकुल थे किसी तरह पानी पिलाकर बहलाकर सुलाया ।

मै भूखी रह सकती हुँ ,पतिदेव एवं बच्चो की भूख मुझसे देखी नही जाती । कुछ भी हो संसार मुझे दोष देता है तो दे परन्तु आज मै पतिदेव को द्वारिका जाने के लिये कहूँगी ।शुशीला ने कहा स्वामी – क्या आपको अपने बचपन के मित्र से मिलने की इच्छा नही होती ? सुदामा ने कहा सच बताऊँ देबी आज भी मुझे पूरे दिन सिर्फ और सिर्फ उसकी याद आती है । शुशीला ने कहा स्वामी तो जाइये न एक बार उनसे मिल आइये – सुदामा ने कहा देवी मै प्रतिदिन जब पूजन मे बैठता हुँ तो आँखे बन्द करके उनसे मिल लेता हुँ ।

इतना ही मिलन पर्याप्त है ।शुशीला ने कहा स्वामी – मैने ऐसा सुना है द्वारिकाधीश भगवान कृष्ण ब्राम्हणो के अनन्य भक्त है । ब्राम्हणो का बहुत सम्मान करते है और शरणागत वत्सल है । मेरी प्रार्थना है कि महराज – द्वारिका के गये हरि दारिद हरेगें पिय द्वारिका के नाथ वे अनाथो के नाथ हैहे नाथ जब आप जाओगे तो दास्यति द्रविणं भूरि सीदते ते कुटुम्बिने यदि आप मिलने जाओगे तो वह इतना धन देगें कि हमारी समस्त दरिद्रता दूर हो जायेगी।

सुदामा ने कहा पगली !बचपन का मित्र और जब आज इतने दिन बाद मिलने भी जाऊँगा तो क्या धन कमाने उनके पास जाऊँगा ।दरिद्रता रोने जाऊँगा ।देवी एक बात जान लो शास्त्रो मे ब्राम्हणो के छह कर्म बताये गये है –अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथादानं प्रति ग्रहश्चैव ब्रम्ह्याणां नाम कलायत पढना ,पढाना ,यज्ञ करना और यज्ञ कराना ,दान लेना और दान देना ।

ये ही ब्राम्हण के छह कर्म है ।हे देवी मै तो भगवान से यही प्रार्थना करता हुँ कि प्रभो मुझे कभी किसी के आगे हाथ न फैलाना पडे –माँगन गये सो मरि गये ,मरे सो माँगन जाहि उनते पहले वे मुये जिन मुख निकसत नाहि हे देवी संसार मे सब कुछ प्रारब्ध से प्राप्त होता है ।

इसलिये मै कुछ माँगने के लिये तो नही जाने वाला ।शुशीला ने कहा स्वामी – आप ये मत सोचना कि शुशीला अपने सुख के लिये कह रही है मै आपको उलाहना नही दे रही वरन घर. की वास्तविक स्थित दिखाना चाहती हुँ –कोदों सवा जुरतो भरि पेट तौ चाहति ना हम दूधि मिठौतीसीत व्यतीत भयो सिसियातहि हौ हटिके यों तुम्हे न पठौतीजानती जो न हितु हरि सो तुम्हे काहे द्वारिका पेलि पठौतीया घर तै न गयो कबहुँ पिय टुटो तवा अरु फूटि कठौती

सुदामा ने कहा देबी जीव कर्म से उत्पन्न होता है ,बढता है तथा अपने अपने कर्म से सुख दुख मरण को प्पाप्त करता है । इसलिये देवी मै धन की इच्छा से जाउँगा नही ।देवी सन्तोष करो आज दुख है ,कल सुख होगा ।अच्छा है जितना दुख पडेगा उतना ही पूर्व जन्म का प्रारब्ध नष्ट होगा और इसी बहाने परमात्मा का ध्यान भी होता रहेगा । जब  तक सन्तोष नही होगा तब तक सब धन व्यर्थ है ।

सुदामा जी शुशीला को समझाते हुये कहते है देवी  संतोष से बढकर दूसरा कुछ नही है । हमे सन्तोष है कि जाहे बिधि राखे राम ताहे बिधि रहिये प्रभु की इच्छा है दो चार दिन व्रत रखवाने की सो व्रत कर लेते है । फिर कुछ न कुछ वे कर देगे ।शुशीला ने समझ लिया अगर मै इनसे कुछ माँगने के लिये जाने की बात करती रहूँगी तो ये जाने वाले नही है ।

शुशीला ने बात को बदला कहा स्वामी – आप कहते हो मै आँख बन्द करके प्रतिदिन पूजन मे दर्शन कर लेता हुँ ? सुदामा ने कहा- हाँ – तो शुशीला ने फिर कहा महराज तो आप मुझे मेरे पुण्य से क्यूँ वंचित करते हो । सुदामा ने कहा -मतलब ? शुशीला ने कहा आप यहाँ पर दर्शन करके अकेले अकेले पुण्य लाभ ले लेते हो , प्रत्यक्ष करते तो पुण्य भी ज्यादा मिलेगा और मै भी इसमे भागीदार हो जाउँगी ।

क्यूँकि शास्त्रो मे कहा गया है  पति ,पत्नी को साथ साथ पुण्यकार्य ,तीर्थयात्रा आदि करना चाहिये अथवा दोनो एक दूसरे से परस्पर आपसी सहमति से  भी धर्मकार्य  करते है तो दोनो बराबर पुण्य के भागीदार होते है । मै चाहती हुँ ,मेरी इच्छा है कि एक बार आप जाकर अपने परम मित्र ,अपने आराध्य द्वारिकाधीस कृष्ण का दर्शन कर आओ । जिससे मुझे भी पुण्य लाभ प्राप्त हो सके ।

सुदामा जी निरुत्तर हो गये ,और मन ही मन सोचने लगे –अयं हि परमो लाभ उत्तमश्लोक दर्शनम् सुदामा जी ने कहा ठीक कहा  ,तुमने मेरे मन की बात की ,कई बार उनकी बहुत याद आयी ,मिलने का बहुत मन हुआ ,फिर मै यही सोचता रहा जाने कहाँ होगा ? कैसे मिलूँगा ? पर जब आज तू भी इतना जोर डाल रही है तो मै जाउँगा । प्रत्यक्ष दर्शन का परमलाभ मुझे मिलेगा ।शुशीला ने कहा तो फिर देर किस बात की ?सोच क्या रहे हो ? सुबह सुबह निकल लो ।

सुदामा जी ने कहा अरी शुशीला ! ऐसे थोडे ही मुँह उठाकर चला जाउँगा ?अरे भाई इतने दिनो बाद अपने सखा के घर जाउँगा तो खाली हाथ जाउँगा ?कुछ स्थान ऐसे होते है जहाँ खाली हाथ कभी नही जाना चाहिए आव गयी आदर गयो नैनन गयो सनेह ये तीनों तब ही गये जबहि कहा कछु देहि गुरु बैद्य और ज्योतिषी देव मित्र बड राज इन्हहि भेंट बिन जो मिलै होइन पूरण काज

मित्र के यहाँ ,गुरु के यहाँ , ज्योतिषी के यहाँ ,कथा मे ,और सम्बन्धी (रिश्तेदार) के यहाँ जब भी जाय कुछ न कुछ हाथ मे होना चाहिये । सुदामा ने कहा देवी जब नजर घर मे जाती है तो मुझे कुछ दिखायी नही पडता । तो अब क्या लेकर जाऊँ ?

शुशीला ने कहा आप चिन्ता न करो मै कल सुबह प्रबन्ध कर दूँगी । सुदामा ने कहा ठीक है ।सुबह हुई पत्नी वही है जो अपने पति के स्वभाव को अच्छी तरह जान ले । शुशीला जानती है मेरे पति को भूख से मरना तो मन्जूर है पर कभी भी अपना दुखडा किसी के आगे नही कहेंगे । अगर किसी ने पूँछा भी तो यही कहेगे कि मेरे घर तो सब ठीक है ।

मेरे पति को कहना भी न पडे और बिना कहे ही मै अपने घर की वस्तुस्थित कन्हैया के पास पहुँचा दूँ यही सोचकर शुशीला चार अलग अलग घरो मे गयी और सभी से एक मुठ्ठी चावल माँगा ,लेकर घर आयी और एक एकदम फटे कपडे मे बाँध दिया ।

अलग अलग घरो से चावल को देखकर कन्हैया समझ जायेंगे कि मेरे मित्र के घर तो चार मुठ्ठी चावल भी नही है तभी तो चार मुठ्ठी और चार तरह के । कपडे को देखकर कन्हैया को मेरी स्थित समझने मे और आसानी होगी ।याचित्वा चतुरो मुष्टीन विप्रान पृथुकतण्डुलानचैलखण्डेन तान् बद्ध्वा भर्त्रे प्रादादुपायनम् ।।

सुदामा जी को देकर शुशीला ने कहा स्वामी !बस यही तुच्छ भेंट अपने सखा को प्रदान करना । और जब उनसे मिलना तो मेरा एक संदेश अवश्य कह देना –एक मास द्वै पाख मे दो एकादशी होंय सो प्रभु दीनदाल ने नितप्रति दीनी मोय सुदामा जी आज प्रभु से मिलने के लिये घर से पहला कदम निकाला  सुदामा जी आज प्रभु से मिलने के लिये घर से पहला कदम निकाला ।

लोकमान्यता के अनुसार सुदामा जी की कुटिया आधुनिक पोरबन्दर नामक स्थान पर थी । घर से कदम बढाया । मित्रो सुदामा जी के शरीर पर ध्यान देना ,दुबला पतला शरीर है ,अगर सामने 5 वर्ष के बच्चे को खडा कर दिया जाय तो वह भी सुदामा के शरीर की हड्डियों को गिनकर बता सकता है ।

शरीर पर वस्त्र के नाम पर एक फटी पुरानी धोती है जिससे वे जबरन अपने शरीर को ढके हुये है । हाँथ मे एक छडी है और काँख मे वही शुशीला जी का दिया हुआ भेट ।इस शारीरिक संरचना के साथ सुदामा जी कितना चल सकते है आप कल्पना करिये रास्ते की जानकारी नही जाना है द्वारिकापुरी रास्ता पकड लिया बिपरीत ।

मित्रो ऐसी मान्यता है कि सुदामा जी पौष शुक्ल पक्ष सप्तमी के दिन द्वारिका के लिये प्रस्थान किया ।अतिशय ठंड के कारण उनका शरीर काँप रहा है । सात दिनो के भूँखे सुदामा दो मील चलते ही थक गये वे सोचते जाते है द्वारिकानाथ के दर्शन होंगे भी या नही ।

रास्ते मे दुर्बलता और चिन्ता के कारण सुदामा जी को मूर्क्षा भी आ जाती थी।इधर शुशीला सोच रही है कई दिनो के भूखे मेरे पति वहाँ तक कैसे पहुँचेगें ? मैने ही उनको जाने के लिये विवश किया ,किन्तु और कोई उपाय भी तो नही था । अपने बालको एवं स्वयं उनकी दुर्दशा भी तो देखी नही जाती ।वह द्वारिकाधीश से प्रार्थना कर रही है हे प्रभु – मेरे पति की रक्षा करना।

सुदामा जी रास्ते मे सोचते जा रहे है –हे प्रेम पयोधि समझते हो यह पपीहा प्यासा आया हैकरुनानिधि यही समझ लेना  द्विज दर्शन करने आया हैउस एक घडी के छल बल ने अब तक मुझको तरसाया हैहे कृपासिन्धु यह नीच छली आज छमा माँगने आया है सुदामा जी चलते चलते थक कर एक वृक्ष के नीचे आराम करने लगे ।सुदामा जी सोच रहे है प्रभु ने हमे इतने सुन्दर कुल मे जन्म दिया परन्तु मेरा दुर्भाग्य देखिये प्रारब्ध मे जो है उसे तो भोगना ही है /मित्रो महाभारत मे पाँच तरह के ब्राम्हण बतलाये गये है

1 आह्यायका माने बुलाने पर जाकर धन लेकर जीबिका चलाने वाला ।

2- देवलका – माने पैसा लेकर पूजा करने कराने वाला ।

3 नाक्षात्रा – माने ज्योतिष देखकर जीविका चलाने वाला

4 ग्राम याचका गाँव की पुरोहिती करके जीवन यापन करने वाला

5 महापथिक कई कई मास तक बाहर रहकर कमाई करने वाला ।

सुदामा जी यही सब बिचार करते करते थके तो थे ही नींद आ गयी ।उधर द्वारिकाधीश भगवान कृष्ण ने बिचार किया मेरा मित्र सुदामा आ रहा है ,उन्होने सोचा कि ऐसा निष्ठावान ,सदाचारी अयाचक तपस्वी को पैदल चलाना मुझे शोभा नही दे रहा है ।

उन्होने गरुड जी को बुलाकर सुदामा को आकाश मार्ग से द्वारिका पुरी मे पहुँचाने का आदेश दिया । मित्रो मेरे परमात्मा का नियम है कि जब कोई भक्त मुझसे मिलने के लिये एक कदम बढाता है तो मै सौ कदम आगे बढकर उसे स्वीकार कर लेता हुँ । लेकिन जब जीव मुझसे एक कदम पीछे हटता है तो मै हजार कदम पीछे हो लेता हुँ ।

सुबह सुबह सुदामा जी की आँख खुली तो वे द्वारिका मे थे ।इधर उधर नजर दौडाते है और सोचते है मै सोया था तो पेड के नीचे और यहाँ तो सुन्दर सुन्दर महल दिख रहे है प्रातः काल सुदामा जी की आँख खुली तो देखते है सुन्दर सुन्दर महल अट्टालिकायें दिखायी दे रही है ।

बिचार मग्न हो गये मै कहाँ पहुँच गया ? कहीं मेरी मृत्यु तो नही हो गयी जो मै स्वर्गलोक पहुँच गया । स्वर्गलोक की सुन्दरता के बारे  मे मैने जैसे पढा एवं सुना था ठीक वैसे ही तो दिख रहा है ।लेकिन मुझे सब कुछ याद है इसका मतलब मै जीबित हुँ । मुझे क्या करना चाहिये ? चलो चलकर किसी से पूँछते है ?सुदामा जी इधर उधर नजर दौडाये कोई दिखा नही ।

इतने मे सामने से दो पहरेदार आते दिखायी दिये । सुदामा जी ने उन्हे पुकारा -भैय्या जरा इधर आना – पहरेदार सुदामा के पास आये और आते ही सुदामा के पैरो को छू लिया और बोले जय श्रीकृष्ण बाबा जी ।सुदामा जी ने हाथ जोड कर कहा जय श्रीकृष्णमित्रो द्वारिकापुरी मे भगवान कृष्ण का आदेश है कि कोई भी ब्राम्हण आये  हमारी नगरी मे तो उसका पूर्ण सम्मान होना चाहिये ।

अगर किसी ने किसी ब्राम्हण ,गौ ,संत का अपमान किया तो वह मेरा अपमान कर रहा है । ऐसा करने वाले को दण्ड मिलेगा ।भगवान ने स्पष्ट कहा है –यह जग मे अद्भुत प्रसंग है मम द्विज एक बिशेष अंग है भगवान कृष्ण ने तो यहाँ तक कहा है कि कोई आग की ज्वाला मे कूद जाये तो मै बचा लूँगा ,

कालकूट विष पीने वाले को भी बचा सकता हुँ पर ब्राम्हण का धन लेने वाले या उन्हे अपमानित करने वाले को हम भी कभी नही बचा सकते । जो ब्राम्हण का बिरोधी है वह साक्षात मेरा बिरोधी है –नाहं हलाहलं मन्ये विषं यस्य प्रतिक्रियाब्रम्ह्स्वं हि विषं प्रोक्तं नास्य प्रतिविधिर्भुवि

सुदामा जी ने पहरेदार से पूँछा -भैय्या ये कौन सी नगरी है ? मुझे द्वारिकापुरी जाना है कृपया मार्गदर्शन करावे ?पहरेदार हंसते हुये बोला बाबा !आप द्वारिका मे ही खडे हो ?सुदामा आश्चर्य चकित अरे भैय्या इतना जल्दी आ गये ? भैय्या अगर ये द्वारिका है तो बताओ मेरा  मित्र कन्हैया कहाँ मिलेगा ?

पहरेदार ने पूँछा ये कौन है ? पूरा पता बताओ ? मकान नम्बर ,गली नम्बर ,मुहल्ला का नाम ? सुदामा जी घबराये  तू कन्हैया को नही जानता ?अरे भइया ये तो हमारे बचपन की बात है हम उन्हे कन्हैया ही कहते थे वैसे उनका पूरा नाम श्रीकृष्ण चन्द्र है और वे यहाँ के स्वामी है ।

पहरेदार तो नाम सुनते ही चौंक पडे! तुम हमारे महराज का नाम ले रहे हो ?अरे बाबा उनका नाम लेने के पहले पता है कितने विशेषण लगाये जाते है ? सर्वेश्वर ,सर्वत्र स्वतन्त्र ,दीनबन्धु ,दीनानाथ ,राजाधिराज ,गो विप्र पालक विश्वबन्द्य द्वारिकाधीस भगवान श्री कृष्ण बाबा तुम न जाने ये कैसा बिचित्र नाम बोल रहे हो ।ये तो हमने पहली बार सुना ।

सुदामा जी इतने लम्बे चौडे विशेषण सुनकर चक्कर मे पड गये,भइया उसने इतना लम्बा चौडा नाम रख लिया ?अच्छा अगर आप जान गये हो तो मुझे बताइये उनका महल कहाँ है ?वे कहाँ. मिलेगे ?पहरेदार ने कहा महराज उनके बारे मे क्या पूँछना ?अरे चले जाइये बडे बडे बिशाल भवन जितने तुम्हे दिख रहे है वो सब उन्ही के है ।

मित्रो भागवत जी मे तो वर्णन आता है कि पहरेदार से पता पूँछकर सुदामा जी सीधे भगवान के अन्तःपुर रुक्मणी जी के महल मे चले गये पर संतो की मान्यता है और प्रसिद्ध कबि नरोत्तम दास जी ने बडा सुन्दर भाव सजाया है कि सुदामा जी महल के दरवाजे पर पहुँचे वहाँ पर दो द्वारपाल खडे थे ।

सुदामा जी उनके पास पहुँचे और कहा – भैय्या मुझे अपने मित्र,और तुम्हारे महाराज  से मिलना है कृपया मुझे उनसे मिलवा दो ।द्वारपालो ने मन ही मन सोचा यह फटेहाल ब्राम्हण और महराज का मित्र ?भगवान की लीला भगवान ही जाने ? द्वारपाल ने आश्चर्य से पूँछा -आप हमारे महराज के सखा हो ?

सुदामा जी ने कहा हाँ -बचपन के । द्वारपाल ने सोचा भगवान की लीला कुछ समझ मे तो आती नही ?कब कौन किस रुप मे चला आवे ?देखने मे तो लग नही रहे है ?टरका के देखता हुँ सायद कुछ लेने आये होगे इन्हे कोषागार से धन दिलाकर बिदा कर देता हुँ ।

अगर नही मानेगे तो देखा जायेगा।द्वारपालो ने कहा महराज आप अभी तो महराज से नही मिल सकते ? सुदामा ने कहा क्यूँ ?द्वारपालो ने कहा यह समय महराज के विश्राम का है । परन्तु आप चिन्तित मत होइये ,मेरे महराज का आदेश है कोई भी ब्राम्हण ,यती ,सन्यासी ,भिक्षुक द्वार से खाली नही जाना चाहिये । आप को जिस वस्तु की आकाक्षां हो आप निःसंकोच कहिये वो मै आपको दिला दूँगा।

सुदामा जी ने कहा भैय्या –नाही धन धाम लोक लाज कुल लाज नाइ नाही अभिलाषा कोई आश न अधूरी है सिर्फ एक अभिलाषा मन मे शेष रही कृष्ण कन्हैया से मिलनो जरुरी है द्वारपालो ने देखा कि ब्राम्हण देवता मान नही रहे है तो कहा बाबा आप यहीं ठहरो हम जाकर अन्दर की वस्तुस्थित देखते है यदि महराज सयनागार मे नही गये होंगे तो मै उनसे पूँछकर आपको उनसे मिलवाता हुँ । बाबा अपना नाम तो बता दीजिये ?सुदामा जी ने कहा भैय्या  जाकर अपने महराज से कह. देना तुम्हारे बचपन का सखा सुदामा तुमसे मिलने आया है ।

द्वारपालो ने सुदामा जी को दरवाजे पर सम्मान जनक तरीके से बैठाकर भगवान के अन्तःपुर मे प्रवेश किया सज्जनो , द्वारपाल सुदामा को दरवाजे पर बैठा कर महल के भीतर गया । भगवान कृष्ण अपनी पटरानिओ के साथ चौसर खेल रहे थे । द्वारपाल पहुँचा और हाथ जोडकर कहता है – महराज आराम मे व्यवधान डालने के लिये छमा प्रार्थी हुँ ।

भगवान कृष्ण ने कहा आखिर बात क्या है ?कौन सी ऐसी मजबूरी थी जो तुमको हमारे सयनागार तक आना पडा ? द्वारपाल कहता है महराज !इस दास को सेवा करते करते वर्षो बीत गये और इन्द्रादिक देवताओ की अगवानी कि है परन्तु महराज आज जो बिभूति आपके दरवाजे पर खडी है और वह आपको अपना सखा  भी बता रहा है ।

ऐसे भी आपके कोई मित्र हो सकते है ये मेरे स्वप्न मे भी नही था ? भगवान कहते है , ऐसा कौन है भाई ? द्वारपाल कहता है ! सरकार ! यही तो समझ मे नही आता कि वह कौन है ?सीस पगा न झगा तन मे  प्रभु जानेै को आहि बसै केहि ग्रामा धोती फटी सी लटी दुपटी अरु पाँय उपानह की नहि सामा द्वार खड्यो द्विज दुर्बल एक रह्यो तकि सो वसुधा अभिरामा पूँछत दीन दयाल को धाम बतावत आपन नाम सुदामा

द्वारपाल कहता है महराज आज आपके दरवाजे पर एक ऐसा बिचित्र व्यक्ति आया है जिसके शिर पर न तो पगडी है और न ही तन पर वस्त्र ।एक धोती जरुर पहना है पर पता नही उसने धोती पहना है या धोती ने उसे पहना है । वह धोती इतनी फटी है कि जबरन अपने लाज को छुपाया है ।महराज पैर भी एकदम खाली है ।

वह कहाँ से आया है यह भी पता नही ।उसके शरीर की संरचना ऐसी है कि एक बालक भी उनके शरीर की हड्डिओ की गिनती कर सकता. है ।जनेऊ एवं चन्दन उसके ब्राम्हण होने की तरफ इसारा कर रहा है । वह एक दम व्यथित दिख रहा है । बार बार एक ही शब्द बोल रहा है मुझे मेरे मित्र से मिला दो भगवान कृष्ण सचेत हो गये ! अरे द्वारपाल उससे नाम नही पूँछा ?

महराजा वह अपना नाम सुदामा बता रहा है ।द्वारपाल के मुख से सु शब्द निकला था दामा  निकलने के पहले भगवान कृष्ण चौसर पर से कूद पडे ,किसी रानी के पैर लगा पीताम्बर कहीं गिरा नंगे पैर दरवाजे की तरफ भागे मेरे परमात्मा का नियम है जब भी वे अपने भक्त से मिलने जाते है तो नंगे पैर ही जाते है चाहे विदुर के घर जाना हो ,चाहे शबरी से मिलने गये और आज सुदामा से मिलने के लिये जा रहे है ।

भगवान दोनो भुजाये फैलाये सु-दामा सु-दामा पुकारते दरवाजे को भागते चले गये । सारी सभा सावधान हो गयी  । ऐसा कौन भाग्यशाली दरवाजे पर आया है जिसके नाम पर इतने उतावले आतुर होकर गोविन्द जा रहे है । अरे !इस दरबार मे ब्रम्हादिक देवताओ को भी आते देखा है ।

पर आज तक जो आये उन्होने अपना शिर झुकाया , मुकुट नवाया । पर इतनी आतुरता भगवान मे कभी दिखायी नही दी ? रुक्मणी आदि रानिया उद्धव जी सभी सभासद पीछे पीछे भगवान दौडे दौडे गिरते पडते सात डय्योडी पार करके दरवाजे पर पहुँच गये ।

इधर दरवाजे पर खडे खडे सुदामा जी अनेक प्रकार के संकल्प बिकल्प मे गोता लगा रहे है कि न जाने पायेगा या नही ?उसे याद भी होगा या नही ? नाम का स्मरण होगा या नही ?अनेक प्रकार के संकल्प चल रहे है ।भगवान ने दरवाजे पर खडे सुदामा जी को देखा कि लपककर दौडकर भुजापाश मे लेकर हृदय से लगा लिया ।

सुदामा जी को लगा जैसे आनन्द के सरोवर से सराबोर हो गये है । दोनो मित्र एक दूसरे के गले लग रहे है ।दोनो इतने आनन्द बिभोर है कि दोनो के नेत्र सजल हो उठे । दोनो का कण्ठावरुद्ध हो गया ।अत्यन्त प्रेम की अधिकता मे कोई किसी से कुछ बोल नही पा रहे है । भगवान सुदामा को गोद मे उठाकर महल की तरफ ले जाने लगे ।

सुदामा बार बार कहते है मित्र मुझे छोड दो मै अपने से चलता हुँ पर कन्हैया कहते है बाबा जब तक भागना था भाग लिया जब जीव मेरे पास आ जाता है तब वह चाहे भी तो हम नही छोडते ।धीरे धीरे भगवान कृष्ण सुदामा को लेकर महल मे गये ।

सभी सभासद आश्चर्य कर रहे है ये वही बिभूति है जिसके स्वागत के लिये सरकार स्वयं गये ?सुदामा जी को ले जाकर भगवान कृष्ण ने अपने सिंहासन पर आसीन किया और स्वयं आप जमीन मे सुदामा के चरणो के पास बैठ गये भगवान कृष्ण सुदामा को अपने अंको मे भरकर महल मे ले आये और अपने सिंहासन पर बैठा कर स्वयं उनके चरणो के पास बैठ गये। सुदामा जी बारबार बिरोध करते है महराज मै इस पर नही बैठ सकता ,परन्तु प्रभु बार बार सुदामा को बैठा ही देते है ।

मित्रो सुदामा का त्याग सर्वश्रेष्ठ है । वह बिपरीत परिस्थित मे भी अपने आदर्श को नही छोडना चाहते । ब्राम्हण अवतार तप करने के लिये है बिलास के लिये नही ।भगवान नही चाहते कि ब्राम्हण बिलासी हो जाय । बैश्य और क्षत्रिय का बिलास तो छम्य है किन्तु ब्राम्हण का बिलास अक्षम्य है ।

यदि अन्तकाल तक ब्राम्हण पबित्र रहे बिलास की कामना न करे तो भगवान उसे सुदामा जैसा दिब्य आनन्द प्रदान करते है ।पहली बात तो मनुष्य तन ही मिलना दुर्लभ है मिल  भी गया तो ब्राम्हण होना माने परमात्मा का सबसे प्रिय होना है । ब्राम्हण होकर जो नियम धर्म का त्याग करता है उससे बडा निकृष्ट कौन हो सकता है ।

सुदामा की मनःस्थित भगवान समझ गये और कहा बाबा तुम तो जानते हो कि जब मैने कोई हठ कर लिया तो मै मानने वाला नही हुँ। अब तक बहुत त्याग कर लिया और उसी का पुण्य है कि तुम आज मेरे सम्मुख हो अब तो तुम्हे बैठना ही पडेगा । सुदामा जी बैठ गये ।भगवान सुदामा के पैरो को उठा लिया और अपने पीताम्बर से साफ करने लगे धूल ही धूल लगी है पैरो मे ।

रुक्मणी आश्चर्य चकित आँखो से देख रही है आखिर ये है कौन ?रुक्मणी के भावो को प्रभु जान गये और कहते है देबी जल्दी पानी लाओ मुझे ब्राम्हण देवता के पैरो को धोना है । रुक्मणी जी भागी पानी लाने को ,,उधर प्रभु अपने पीताम्बर से सुदामा के पैरो के उपर की धूल को साफ किया और जैसे ही हाथ तलवे मे लगाया सुदामा जी उछल पडे ।

भगवान ने कहा क्या हुआ ? सुदामा ने कहा ! कुछ नही भैय्या !!! भगवान ने जैसे सुदामा के पैरो को उठाया और तलवे को देखा अनगिनित काँटे चुभे हुये है ,जिनकी कोई गिनती नही हो सकती कितने सारे फफोले पडे हुये है , उसमे से कितने फफोले फूट गये है जिनमे छोटे छोटे धूल मिट्टी के कण अन्दर भर गये है । ऐसे कंटकविद्ध पैरो को प्रभु ने देखा तो जब तक रुक्मणी पानी लेकर आती तब तक प्रभु के आँखो से इतना अश्रु बहा कि सुदामा के दोनो चरण प्रभु ने धो दिये

ऐसे बिहाल बेवाइन सों पग कंटक जाल लगे पुनि जोयेहाय!महादुख पायो सखा तुम आए इतै न कितै दिन खोयेदेखि सुदामा की दीन दसा करुना करिके करुनानिधि रोयेपानी परात को हाथ छुयो नहि नैनन के जल सों पग धोये प्रीति की पराकाष्टा ,आज भगवान अपने भक्त के कष्ट को देखकर इतना अश्रुपात  हुआ कि सुदामा के दोनो पैर भगवान के आंशुओ से धुल गये –प्रीतो व्यमुञ्चदब्बिन्दून् नेत्राभ्यां पुष्करेक्षणः समस्त पटरानिया ,सभासद सबके सब हक्के बक्के खडे है ।

सभी यही सोच रहे है इस महापुरुष ने ऐसा कौन सा पुण्य किया होगा ? जिस परमात्मा का चरणरज पूरा संसार चाहता है और आज स्वयं परमात्मा अपने अश्रुओ से इनका पैर धुल रहे है ।सभी मन ही मन कह रहे है इनके जैसा भाग्यशाली संसार मे और. कौन हो सकता है । मित्रो सुदामा जी सहमे से सिंहासन से चिपके बैठे है  ।

कन्हैया सुदामा के मन की बात जान लेते है ,सुदामा सिंहासन पर मुझसे अपने मन की बात नही कर पायेगें और मित्र से वर्षो बाद मिले है तो मन की बात होनी चाहिये ।भगवान कृष्ण ने सुदामा से कहा मित्र बहुत थके लग रहे हो इसलिये आप मेरे अन्तःपुर मे चलो थोडा आराम कर लो तब बात की जायेगी ।भगवान ने सुदामा जी के चरणोदक को स्वयं पिया और रुक्मणी को देकर कहा इस प्रसाद को सब को बितरित कर दो । ऐसा प्रसाद मुझे आज पहली बार मिला है ।

सुदामा जी को स्नान कराया गयाव,वस्त्राभूषण धारण कराये ।बिबिध व्यंजन बन कर सामने आ गया । भगवान ने कहा  मित्र  भोग लगाओ । सुदामा ने कहा तुम भी प्रसाद को साथ ही प्राप्त करते तो और आनन्द आता । कन्हैया ने पहले आप प्रसाद पा लो तो हम पायेगे । आज सुदामा जी आसन जमाये भोजन की थाली सामने आयी ,प्रभु को अर्पण किया और जैसे ही मुँह मे पहला ग्रास डाला आसूँ निकल आये  मै यहाँ छप्पन भोग खा रहा हुँ वहाँ मेरे बच्चे मेरी पत्नी हफ्तो से भूखी है ।

कन्हैया बगल मे खडे है पूँछा क्या हुआ मित्र  सुदामा कहते है कुछ नही कुछ नही । सुदामा ने किसी तरह से अपने को संभाला और भोजन किया। सुदामा जी ने भोजन किया । भगवान श्रीकृष्ण ने सुदामा जी को रुक्मणी के एकान्तिक कक्ष मे लेकर गये । अपनी सुकोमल सैय्या पर सुदामा जी आराम कराया । सुदामा जी को ऐसा लगा जैसे क्षीरसिन्धु मे अवगाहन कर रहे है ।

आनन्द बिभोर हो गये ,मन प्रसन्न हो गया ।मन ही मन भगवान के इस अलौकिक प्रेम की सराहना कर रहे है । वाह मित्र इतना बैभव प्राप्त करने के बाद भी तुम्हारे व्यवहार मे कोई परिवर्तन नही हुआ ।सुदामा जी जब सैय्या पर लेट गये तो कन्हैया स्वयं उनके पैरो को दबाने लगे । सुदामा बारम्बार रोकते है पर मेरे गोविन्द कहाँ मानने वाले है ।

रुक्मणी ने देखा मेरे स्वामी चरणसेवा कर रहे है तो मुझे भी इन महापुरुष की कुछ सेवा करनी चाहिये । सो तुरंत एक पंखा लेकर आयी और एक किनारे खडी होकर हवा करने लगी ।देवी पर्यचरत् साक्षाच्चामरव्यजनेन वै वाह देखिये आज सुदामा जी के भाग्य संसार के सबसे भाग्यशाली व्यक्ति ,स्वर्ग के देवता भी आज इस दृष्य को देखकर सुदामा के भाग्य की सराहना कर रहे है । जिसका पैर स्वयं नारायण दबा रहे है और लक्ष्मी जी पंखा झल रही हो वह कितना भाग्यशाली है ।

भगवान कहते है मै आज भी सेवा करने को तैयार हुँ पर कोई सुदामा बनकर के तो दिखे ।ग्यारहवे स्कन्ध मे भगवान उद्धव जी से कहते है-निरपेक्षं मुनिं शान्तं निर्वैरं समदर्शनम्अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यड़ि्घ्ररेणुभिः।।भगवान तो उसकी चरण रज मे स्नान करने को तैयार है कोई निरपेक्ष बनकर के तो देखे ।हमारी तो न जाने कितनी अपेक्षाऐं हर व्यक्ति से है ।

जो हमसे जुडा कि उससे हमने अपेक्षा कि ,इससे हमारा ये काम हो सकता ,वो काम हो सकता है ,ये फायदा ले सकता हुँ ,वो फायदा ले सकता हुँ । हम भगवान के मन्दिर मे जाते है तो घर से निकलते वक्त ही ये सोचने लगते है कि हमे भगवान से क्या क्या माँगना है । बहुत सारी अपेक्षा पाल रखे है हम । परन्तु एक बात तय है कि कि अगर हम किसी से कोई अपेक्षा न रखे यहाँ तक की परमात्मा से भी कुछ न माँगे तो निश्चय ही प्रभु हमारे लिये लिये जो उपयुक्त होगा वे जरुर करेगे ,हमे उन पर पूर्ण विश्वास होना ही चाहिये ।

भगवान कहते है अगर कोई निरपेक्ष बनता है तो मै उसकी चरण रज मे स्नान करके अपने को पबित्र करता हुँ ।सुदामा की सेवा करते करते अचानक कन्हैया ने कहा मित्र बचपन के बाद आज मिले है ,पहले ये बताओ विवाह हुआ कि नही ? देखिये भगवान चाहते है कि हम दोनो बचपन की उसी अवस्था मे पहुँच जाय जहाँ खूब हास परिहार होता था ।

जब दो मित्र मिलते है तो हास्य भी होता है और परिहास भी होता है ,सुख की चर्चा भी होती है दुख की चर्चा भी होती है ।भगवान ने पहला प्रश्न किया –अपि ब्रम्ह्यन गुरुकुलाद् भवता लब्धदक्षिणात्समावृत्तेन धर्मज्ञ भार्योढा सदृशी न वा कन्हैया ने कहा मित्र पहले ये बताओ कि तुमने विवाह किया या नही ? क्यूँकि तुम बचपन मे शादी के नाम पर बहुत भागते थे ?

बाबा बैरागी बनना चाहते थे ।सुदामा ने कहा -कन्हैया !तुम बचपन मे भी बार बार शादी की बात करते थे और आज भी वही । कन्हैया ने कहा बात न बदलो बताओ विवाह किया या नही ?सुदामा ने कहा – हाँ मित्र विवाह न चाहते हुये भी करना पडा तुम्हारी भाभी का नाम शुशीला है । भैय्या जैसा उनका नाम है वैसा ही काम है । मेरे सर्वथा अनुकूल रहती है और पत्नी तो वही कही जा सकती हैकार्ये दासी रतौ रम्भा भोजने जननी समाविपत्सु मत्रिणी भर्तुः सा चा भार्या पतिब्रता मित्र मेरे अनुकूल पत्नी मिली है ।कन्हैया ने चुटकी ली – मित्र विवाह कर लिया और निमन्त्रण भी नही दिया कोई बात नही ।

सुदामा ने कहा मित्र एक सच्ची बात कहूँ ?तुम्हारी भाभी ने ही मुझे यहाँ भेजा है । कन्हैया ने कहा ओहो अहोभाग्य माने भाभी जी मेरे बारे मे सब जानती है ,तुमने बताया होगा ।भाभी ने बडी कृपा की लेकिन मित्र भाभी ने अगर भेजा है तुम्हे तो कुछ न कुछ उपहार मेरे लिये अवश्य भिजवाया होगा । कहाँ है मुझे दो ?सुदामा ने एक तरफ खडी रुक्मणी को देखा और एक तरफ कांख मे दबाये चावल को ।

बडे संकोच मे है क्या करुँ ? जब कन्हैया ने सुदामा से पूँछा कि भाभी जी ने मेरे लिये क्या भेजा है ? सुदामा जी सामने खडी रुक्मणी को देखकर पोटली काँख मे छुपा लेते है ।मित्रो सुदामा ऐसा क्यूँ करते है जब वे घर से उपहार देने के लिये लाये है तो संकोच कैसा ? मित्रो द्वारिका के बैभव को देखकर एवं रानिओ के सम्मुख मेरे मित्र का उपहास न हो इसलिये  सुदामा जी उस पोटली को छुपा रहे है ।

जब एकान्त मिलेगा तो हम यह पोटली कन्हैया को दे दूँगा । अभी दूँगा तो मेरे मित्र की पत्नियाँ यही सोचेगी कैसा फटीचर भिखारी इनका मित्र है जो चार मुठ्ठी चावल भी लाया तो चार तरीके का ।यही सोचकर सुदामा जी मौन हो गये ।इस मौन को कन्हैया ने तोडा – कहा मित्र कुछ लाये हो तो बोलो न लाये हो तो कोई बात नही ? सुदामा ने कहा सही बताऊँ जल्दी जल्दी मे मै कुछ नही ला पाया ।

भगवान मुस्कराये— सुदामा !तुम्हारे बचपन की आदत अभी तक नही गयी मुझे  ऐसा लगता है । बचपन की बात याद तो है ? सुदामा बोले हाँ हाँ सब याद है । सब याद आ गयी । कन्हैया ने कहा मित्र उस दिन कितना पानी बरसा था पूरा जंगल पानी से भर गया था –वयं भृशं तत्र महानिलाम्बुभि   र्निहन्यमाना मुहुरम्बुसम्प्लवेदिशोविदन्तोथ परस्परं वने  गृहीतहस्ताः परिबभ्रिमातुराः मित्र याद है उस दिन एक दूसरे का हाथ पकडकर रास्ता ही भूल गये थे ।इधर से उधर भटक रहे थे । गुरुकुल का रास्ता ही भूल गये थे । सुदामा ने कहा हाँ मित्र कितनी भयंकर सर्दी थी ।

सारी रात पे्ड के नीचे बितानी पडी भला उस रात को कैसे भूल सकता हुँ । कन्हैया ने कहा मित्र तुम्हे तो सब याद है ।तब तो यह भी याद होगा कि उस रात सर्दी मे तुम्हारे दाँत कितने कट-कटा रहे थे ? अब सुदामा जी की समझ मे आया ये कौन सी पोल पट्टी खोलने वाले है । सुदामा जी हंसकर कहते है – कन्हैया जाने दो वो सब बचपन की बाते । बिद्यार्थी जीवन का आनन्द ही कुछ और होता है – सुदामा जी ने पूरी बात ही बदल दी ।

सज्जनो जब दो मित्र मिलते है तो जीवन बचपन की यादो मे चला ही जाता है । सुदामा जी ने बात को तो खूब घुमाया पर कन्हैया घूम फिरकर पुनः उसी बात पर आ गये और कहा – मित्र तुम्हारी वही बचपन वाली आदते अभी भी है । सुदामा जी ने कहा क्या मतलब कन्हैया ? कन्हैया ने कहा तुम झूठ मत बोलो तुम भले कुछ लाना भूल जाओ पर तुमने कहा कि तुम्हे भाभी ने भेजा है तो मेरे लिये उपहार जरुर भेजा होगा – मेरा उपहार मुझे दो ?

सुदामा कहते है तुम घूम फिरकर फिर भाभी पर आ गये भैय्या मैने बताया तो कि मै जल्दी जल्दी मे कुछ ला नही पाया ,फिर मुझे काहे बार बार लज्जित कर रहे हो ।भगवान ने कहा अच्छा लगता है तुम मेरा स्वभाव भूल गये हो ।अगर भूल गये हो तो दुबारा बता देता हुँ –पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छतितदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः भगवान का स्पष्ट कथन है कि मै पदार्थ का भूखा नही हुँ । वस्तु कुछ भी हो कितनी भी मात्रा मे हो यह मै नही देखता । पत्र ,पुष्प ,फल या जल जो भी आप पा सकते हो भक्तिभाव प्रेम से मुझे अर्पण कर दो मै उसी से प्रसन्न हो जाता हुँ ।

तुमने क्या दिया इसकी कीमत नही तुमने कैसे दिया उसका महत्व है ।तुम क्या बोले उसका कोई महत्व नही कहा से बोले इसका बडा महत्व है । क्या था सबरी के पास? ,क्या था विदुरानी के पास? ,क्या था गोपिओ के पास ? इन सबके पास प्रेम था और इन सबने अपने हाथो से गोविन्द को पवाया।कन्हैया कहते है मित्र इसलिये कहता हुँ अगर कुछ लाये हो तो मुझे दे दो ?

सुदामा ने कहा तुम लाख प्रवचन करो जब मै कुछ लाया ही नही तो कहाँ से दूँ ? भगवान समझ गये कि ये साहस नही कर पा रहे है ? कन्हैया ने कहा तो जाने दो !जब कुछ लाये नही तो बात खत्म । पर मै देख रहा हुँ कि जब से आये हो ये दाहिना हाथ कुछ मुडा मुडा दिख रहा है  हाथ मे कुछ बीमारी है क्या ? सुदामा ने कहा नही मित्र इतनी लम्बी यात्रा करके आये है और हाथ मे छडी थी इसलिये थोडा दर्द कर रहा है । बाकी मै बिल्कुल ठीक हुँ ।

कन्हैया ने कहा तो अभी तक बताया क्यूँ नही दर्द हाथ कर रहा है और मै दबा पाँव रहा हुँ ।अरे वाओ हाँथ इधर दो अभी मै ठीक कर देता हुँ सुदामा जी नही नही करते रहे    और कन्हैया ने जैसे हाँथ को पकडा –स्वयं जहार किमिदमिति पृथकतण्डुलान् भगवान ने वह चावल की पोटली को हाथ से पकडकर बाहर निकाल लिया । भगवान ने सुदामा के हाथो से वह चावल की पोटली खींच ली । भगवान ने मन ही मन कहा मित्र मै इस महा प्रसाद को बिना खाये रह नही सकता । जैसे ही कन्हैया ने वह पोटली खीची कपडो के चिथडे मे बँधा चार रंग का चावल सामने गिर गया ।

फटा कपडा और चावल को देखते ही मेरे गोविन्द समझ गये मेरे मित्र के यहाँ सब कुशल नही है ।कन्हैया कहते है मित्र बचपन की वह आदत आज तक तुमने नही सुधारी  कौन सी आदत ?आगे चना गुरु मात दिये तुम सोउ लये चाभि हमे नहि दीनेश्याम कहे मुसकाय सुदामा कि चोरी कि बानि मे हो जू प्रबीनेपोटरी काँख मे चांपि रहे तुम खोलत नाहि सुधारस भीनेपाहिल बानि अजौ न तजि तुम तैसई भाभी के तंदुल कीन्हे

भगवान ने उस बिखरे हुये चावल को देखा और आव देखा न ताव तुरंत एक मुठ्ठी चावल अपने श्रीमुख मे डाल लिया –इति मुष्टिं सकृज्जग्ध्वा द्वितीयां जग्धुमाददेतावच्छ्रीर्जगृहे हस्तं तत्परा परमेष्ठिनः भगवान ने एक मुठ्ठी चावल अपने मुख मे डाला और संकल्प लिया कि इस मुठ्ठी चावल के बदले एक लोक के सम्राज्य का सुख प्रदान करता हुँ । दूसरी मुठ्ठी चावल प्रभु ने हाथ मे लिया कि रुक्मणी ने हाथ पकड लिया ।पहले मे तो संकल्प करके एक लोक की सम्पदा दान कर दी ।

पता नही दूसरी मे कहीं मेरा ही दान न कर दे ।इनका क्या भरोसा ?इसलिये इसारा किया प्रभु अब सब कुछ देकर स्वयं सुदामा बनना चाहते हो ? अथवा हाथ पकडकर संकेत किया प्रभु ,बहुत प्रेम से पा रहे हो,पर कच्चे चावल है नुकसान कर देगा । मित्रो आज गुप्त रुप से लक्ष्मी और नारायण की वार्तालाप हो रही है । लक्ष्मी जी कहती है प्रभू बहुत प्रसन्न हो रहे हो ब्राम्हण देवता पर — पर ध्यान रखना ये वही ब्राम्हण है जिन्होने तुम्हारे सीने पर लात मारी थी ।

भगवान ने हंस कर कहा देवी ये भी ध्यान रखना कि यही ब्राम्हण न होते तो तुम भी आज यहाँ न होती वरन शिशुपाल के यहाँ सेवा कर रही होती । यही ब्राम्हण तुम्हारा पत्र लेकर आये थे । गुप्त रुप से लक्ष्मी नारायण की चर्चा हो रही है ।मित्रो प्रत्यक्ष मे रुक्मणी कहती है प्रभो संत का लाया महाप्रसाद अकेले ही पाना चाहते है , महाप्रसाद तो मिल बाँटकर खाना चाहिये ।

अकेले अकेले कैसे पा रहे हो ?परिवार मे सब को दो दो दाना तो मिले ?भगवान ने वह चावल एकत्रित करके रुक्मणी को दे दिया और कहा ! ये महाप्रसाद सब को बाँट दो ।रुक्मणी प्रसाद बितरण करने हेतु गयी । भगवान ने एकान्त पाकर पूँछा मित्र इतना सुन्दर महाप्रसाद अभी तक आपने छुपा कर रखा ?यदि मेरी भाभी ने मेरे लिये प्रसाद भेजा है तो कुछ न कुछ संदेसा अवश्य भेजा होगा ?

सुदामा जी को याद आया अरे मित्र खूब याद कराया तुम्हारी भाभी ने आते आते मुझसे कहा था –एक मास द्वै पाख मे दो एकादशी होयसो प्रभु दीनदयाल ने नितप्रति दीनी मोय शुशीला भाभी का समाचार पाते ही प्रभु के नेत्र सजल हो गये ,कुछ देर के लिये कन्हैया ने दोनो आँखे बन्द कर ली । सुदामा जी को लगा मैने बहुत गलत किया मुझे कन्हैया से यह संदेस नही कहना था ?मेरा कन्हैया मेरे दुख को नही देख सकता ।

सुदामा जी मन ही मन प्रभु से छमा माँगते है प्रभु मुझसे बहुत बडा अपराध हो गया है मुझे छमा करो । इधर सुदामा मन ही मन छमा माँग रहे है उधर प्रभु आँख बन्दकर शुशीला को संदेश भेज रहे है –होनी थी सो ह्वै गयी पर अब न ऐसी होयभाभी तेरे भवन मे नित्य द्वादशी होय वाह मेरे प्रभु तुम्हे जो देना था दे दिया और लेने वाले को पता भी नही चला कि किसने दिया ।

तुम्हे देते नही देखा परन्तु झोली भरी देखी भगवान ने सुदामा को सब कुछ दे दिया । परन्तु सुदामा को तो पता नही ।भगवान देना सिखाते है । मित्रो एक कवि हुये नाम था रहीमदास – जब वे दान करते थे तो नीचे को सर झुका लेते थे । किसी ने उनसे पूँछा !.आप अपना सिर नीचे क्यूँ कर लेते हो ? तो रहीम दास जी ने कहा –देनहार कोई और है भेजत है दिन रैनलोग भरम हम पर करें या ते नीचे नैन ।।मित्रो देने वाला तो परमदाता है । दाता एक राम भिखारी सारी दुनिया सारी दुनिया भिखारी है कोई बडा भिखारी कोई छोटा भिखारी ।

माँगते तो सब उसी परमात्मा से है ? भगवान ने यदि किसी को बहुत ज्यादा दिया है तो इसीलिये दिया है कि तुम दाता बन जाओ । भगवान ने अ्गर हमे अधिक धन ,अधिक ज्ञान दिया है तो उसका सदुपयोग करो । राजा  उसी को मन्त्री बनाता है जो योग्य हो । आप भगवान के मन्त्री हो जिम्मेदारी सही से निभाओ नही तो बर्खास्त कर दिये जाओगे ।

जब हम परमात्मा की दी हुई सम्पत्ति को अपना मानकर देने का गर्व करने लगते है मैने  इतना दान दिया ? तो भगवान को हंसी आने लगती है कि देखो ! मेरी ही वस्तु पर कितनी अकड दिखा रहा है ? कभी कभी भगवान को चढावा चढाते समय अहंकार करते है देखो प्रभु मैने आपको इतने का दान किया  ।भगवान पर मानो एहसान कर रहे हो ।

भगवान जिसे देते है ,उसे पता नही चलता कि किसने दिया ।सुदामा जी ने प्रसंग बदल दिया , अरे कन्हैया तुम अपना कुछ बताओ ,जब से मै आया हुँ मेरी ही पूँछे जा रहे हो । अपनी भी कुछ बताओ ? कन्हैया ने कहा पूँछो ? सुदामा ने कहा वैसे भी बिना पूँछे तू कुछ बताने वाला भी नही ।अच्छा ये बताओ तुमने शादी किया ? भगवान ने कहा ओ हो अब बताये क्या सीधे सीधे मिलवा ही देते है । सुदामा ने कहा वाह ये तो और अच्छी बात है ।

भगवान ने रुक्मणी को बुलाया और कहा घर मे सबको सूचना दे दो कि आकर के ब्राम्हण देवता से आशीर्बाद ले ले । रुक्मणी जी ने संदेसा भिजवा दिया ।सुदामा जी ने आसन लगाया , रुक्मणी जी आयीं प्रणाम किया – सुदामा जी ने हाथ उठाकर आशीर्बाद दिया  सौभाग्यवती भव पतिप्रियाभव पुत्रवती भव।खूब आशीर्बाद दिया । रुक्मणी गयी सत्यभामा आयी — महाराज प्रणाम  सुदामा जी आश्चर्य से कन्हैया की ओर देखकर पूँछते है भैय्या ये कौन ? भगवान हंसकर बोले बाबा ये भी हमारी धर्मपत्नी है ।

सुदामा ने कहा वो हो बडे ठाठ है दो दो विवाह सौभाग्यवती भव पतिप्रिया भव पुत्रवती भव सत्यभामा गयी जाम्बवन्ती आ गयी महराज प्रणाम सुदामा ने फिर कन्हैया की तरफ देखा – ये कौन ?भगवान ने कहा बारबार मत पूँछो अभी यहाँ जो आये सब वही है ।सुदामा ने कहा तो कितनी है दस बीस है क्या ? भगवान ने कहा मित्र अब गिनती का क्या करोगे अब सब सामने आ रही है स्वयं गिन लेना । सुदामा ने सोचा दस बीस होगी और कितनी होगी ?

आने दो पर देखते है तो पूरब पशिचम उत्तर दक्षिण चारो तरफ से लम्बी लम्बी लाइन सुदामा जी ने आशीर्बाद छोटा कर दिया सौभाग्यवती भव पुत्रवती भव 100-200 हुई  तब तक सुदामा जी का गला सूखने लगा ,आगे आशीर्बाद और छोटा सोभाग्यवती भव 500 तक पहुँचते पहुँचते सुदामा जी थक गये अब आशीर्वाद और छोटा भव भव. हजार तक पहुचते पहुँचते सुदामा जी का हाथ उठना बन्द ।

कहा कन्हैया अभी और कितनी है , कन्हैया ने कहा न अभी आधे राम न तिहाई अभी तो सुरुवात है कुल मिलाकर 16108 है । सुदामा ने कहा तब तो आशीर्बाद देते देते राम नाम सत्य हो जायेगा । ये कन्हैया सब की जगह तू ही आ जा और मुझे प्रणाम कर ले सब को एक साथ आशीर्बाद मिल जायेगा । कन्हैया ने कहा हाँ ये ठीक है। मित्रो भगवान ने सुदामा को प्रणाम किया और सुदामा जी ने मुक्तकण्ठ से सभी को एक साथ आशीर्बाद दे दिया ।

सुदामा ने कहा मित्र एक बात बताओ मैने तो एक विवाह किया और आपको निमन्त्रण नही दे पाया तो आते ही उलाहना । आपने तो इतने विवाह किये एक मे भी मित्र की याद नही आयी ? कन्हैया ने् कहा क्या बताऊँ मित्र – सब मे सीधा विवाह हुआ ,कहीं लडकर लाना पडा ,कहीं छुडाकर लाना पडा । क्या बताऊँ  देविओं की लाइन लग गयी परन्तु द्वारिका वाले बारात जाने को तरस गये ।सुनकर सुदामा जी बडे प्रसन्न हुये । और कहा मित्र अब मुझे घर जाने की आज्ञा दो सुदामा जी ने अपने दरिद्रता की बात भगवान से नही बताई सो भगवान ने भी ऐश्वर्यदान की बात सुदामा को नही बतायी ।

सुदामा अगले दिन गाँव लौटने की तैयारी करने लगे । सुदामा ने कहा मित्र  ! हम अब घर जायेगें । कन्हैया ने कहा मित्र दो चार दिन और रुक जाते । सुदामा ने कहा नही मित्र तुम्हारी भाभी मेरी प्रतीक्षा मे होगी , उसका नियम है कि जब तक मै भोजन नही करता तब तक वह नही करती । मै जितने दिन घर से बाहर रहूँगा उतने दिन वह व्रत रखती है ।

मित्रो सुदामा जी जानते है कि घर मे तो कुछ है नही इसलिये बहाना करता हुँ कि शुसीला बिना मेरे भोजन किये भोजन नही करती । इधर भगवान भी जानते है कि सुशीला सारा बैभव पाकर भी व्रत लिये बैठी है कि जब तक पति का मुख नही देख लूँगी भोजन तो क्या पानी भी नही लूँगी भगवान ने सोचा यदि मै सुदामा को रुकने का जिद करुँगा तो मै नाराज न हूँ इसलिये ये रुक जायेगे । भगवान ने निश्चय कर लिया मुझे दुराग्रह नही करना है । भगवान ने कहा ठीक है मित्र जैसी तुम्हारी इच्छा ।

अब चलने का समय हुआ तो अचानक सुदामा के मन मे आया मुझे तो धन की कोई कामना है नही परन्तु मुझे सुशीला ने भेजा इसीलिये था कि कन्हैया कुछ न कुछ अवश्य देगे उससे दो चार दिन बच्चो का भोजन हो जायेगा । परन्तु कन्हैया ने न तो कुछ मुझे दिया और न ही चर्चा किया । जब मै लौट कर खाली हाँथ जाउँगा तो सुशीला और बच्चे निराश हो जायेगें । तो क्या करुँ ? कुछ माँगू ? नही नही माँगना ठीक नही है । इसी तरह मन मे तरह तरह के विचार आ रहे है सुदामा जी के ।

अचानक सुदामा जी की निगाह अपने पहने वस्त्रो पर पडी तो उन्होने तय कर लिया चलो रास्ते मे यही राजसी वस्त्र बेंचकर सुशीला एवं बच्चो के लिये कुछ उपहार ले लूँगा ।सज्जनो आज सुदामा जी के मन जैसे ही छोटा सा लोभ का अंकुर जमा मेरे परमात्मा ने कसौटी को और कस दिया कहा रुक्मणी सुदामा के कपडे धोकर आ गये होगे उसे लाकर इन्हे दे दो और राजसी वस्त्र सुदामा जी निकाल दे ।

इनके उपर यह अच्छे नही लगेगे । क्यूँ मित्र ? सुदामा ने कहा हाँ – हाँ मित्र सही कहा -मित्रो आज भक्त और भगवान अपनी अपनी जगह अड गये । भगवान  भक्त से कहते है तुम्हे माँगना ही पडेगा बिना माँगे मै प्रत्यक्ष मे कुछ दूँगा नही । भक्त कहता है भगवान से तुम्हे देना हो तो दो मै माँगूगा नही ।

भक्त और भगवान दोनो अपनी अपनी जगह अडे है ।सुदामा जी का वस्त्र आ गया अपने वस्त्र को धारण किया सुदामा जी ने और निकल पडे ,कुछ दूर तक भगवान पहुँचाने आये । सुदामा ने कहा मित्र अब मुझे जाने दो आप भी लौट जाओ । कन्हैया ने कहा ठीक है बाबा  अच्छा प्रणाम  मेरी भाभी को भी प्रणाम कहना और अगली बार भाभी को साथ मे लेकर आना ।

सुदामा जी चल पडे प्रत्यक्ष मे भगवान ने बिदायी दक्षिणा भी नही दिया  ।अब चलते चलते सुदामा जी सोच रहे है । मित्रो सुदामा के मन मे यदि धन पाने की इच्छा होती तो स्वाभाविक है जिस वस्तु की कामना मन मे होती है वह कामना पूर्ण न हो तो क्रोध का जन्म होता है । कामना की अपूर्णता मे ही क्रोध का जन्म होता है

लेकिन सुदामा के मन मे तो कामना थी ही नही ,केवल दर्शनलाभ लेने आये थे सो मिल गया ।धन की इच्छा तो सुशीला मे थी ।इसलिये सुदामा के मन मे किंचितमात्र कुभाव नही आया । कुछ अज्ञानी कहते है वापसी मे सुदामा भगवान को अपशब्द बोलते आये । उनसे यही कहना है कि भागवत उठा कर पढिये व्यास जी क्या लिखते है – क्वाहं दरिद्रः पापीयान् क्व कृष्णः श्रीनिकेतनः**ब्रम्ह्यबन्धुरिति स्माहंं बाहुभ्यां परिरम्भितः

सुदामा जी वापसी मे सोच रहे है कहाँ तो मेरे जैसा दीनहीन दरिद्र ब्रम्ह्यबन्धु पतित ब्राम्हण और कहाँ उन जैसा द्वारिकाधीस लक्ष्मीपति ? पर धन्य है ! लोग तो उच्च पदवी को पाकर माता पिता को पहचानने से मना कर देते है । पर वह केवल मेरा बचपन का साथी ही तो था ? परन्तु किस प्रकार से दौडकर मुझे भुजाओ मे उठाया ? धन्य है ! ये श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कोई नही कर सकता ।दरिद्र पर लोगो की नजर तक नही जाती और उसने तो लक्ष्मीपति होकर मेरा कितना सम्मान किया ।

मै यह भी जानता हुँ कि उन्होने मुझे धन क्यूँ नही दिया ?रास्ते मे सुदामा जी भगवान के सद् व्यवहार का स्मरण करते हुये चले जा रहे है । विचार करते है मुझे मालुम है भगवान ने मुझे धन क्यूँ नही दिया अधनोय्यं धनं प्राप्य माद्यन्नुच्चैर्न मां स्मरेत्इति कारुणिको नूनं धनं मेभूरि नाददात्भगवान किसी को जल्दी धन नही देते क्यूँकि उन्हे पता है कि जब किसी निर्धन को बहुत सारी सम्पत्ति मिल जाती है तो उसकी बुद्धि खराब हो जाती है ,वह मदान्ध हो जाता है ,विषयो मे भटक जाना है ।

सुदामा जी सोचते है सायद यही कारण रहा होगा जो गोविन्द ने मुझे धन नही दिया और मै धन लेकर करुँगा भी क्या ?मुझ पर मेरे गोविन्द की कृपा बनी रहे यही मेरे लिये बहुत है ।यही सब सोचते सोचते सुदामा जी घर पहुँच गये ।

अब घर तो आ गये पर उन्हे अपनी झोपडी कहीं दिख ही नही रही है ।झोपडी की जगह पर बडे बडे महल दिखाई पड रहे है ।सुदामा आश्चर्यचकित कहीं मै दूसरी जगह तो नही आ गये ? मुझे तो यही लग रहा है कि मै पुनः द्वारिकापुरी पहुँच गया हुँ ? लेकिन ये कैसे हो सकता है ? वैसोइ राज समाज बनो गज बाजि घने मन सम्प्रभ लायोकैंधो परयो कहुं मारग भूलि कि फेर के मै अब द्वारिका आयोभौन बिलोकत को मन लोचत सोचक ही सब गांव मझायोपूंछत पाडें फिरै सब सो पर झोपरी को कहुं खोज न पायोडरे सहमे

सुदामा जी भवन के चक्कर काट रहे है कुटिया कहाँ गयी मेरी ? कुटिया गयी तो गयी पर मेरी पत्नी सुशीला और मेरे बच्चे कहाँ गये ? अब मै उन्हे कहाँ खोजूँ ?  तब तक सेवको की नजर सुदामा जी पर पडी और देखा कि सुदामा जी तो पूरी तरह दिग्भ्रमित है अगर मै सीधा उनके पास जाता हुँ तो सुदामा जी सोचेंगे अचानक ये नौकर मेरे यहाँ कहाँ से आ गये ? उन्होने सोचा चलकर सुशीला को खबर करता हुँ ।

सेवको ने सुशीला जी को सूचना दी माता जी दरवाजे पर एक पंडित जी काफी देर से चक्कर लगा रहे है मुझे तो वे दिग्भ्रमित लगते है ? सुशीला ने खिडकी से झांक कर देखा ,और देखते ही प्रसन्नता से उछल पडी !! अरे चलो चलो स्वागत की तैयारी करो मेरे. स्वामी आये है ।

सुशीला जी सजधजकर सोलह श्रंगार करके आरती की थाल सजाकर सुदामा जी की अगवानी के लिये चली ।सुशीला के साथ साथ सेवक सेविकाये सुदामा महराज की जय का उदघोष करते चले ।सुदामा जी ने जब अपने नाम का जय जयकार सुना तो और घबरा गये मुझे लगता है उधर मै द्वारिका गया और इधर किसी सुदामा नाम के राजा ने मेरी झोपडी उजाडकर अपना महल बना लिया ? पर ये देबी कौन है ?

सुदामा जी जाकर के एक कोने मे खडे हो गये ।अचानक सुशीला जी सुदामा जी के सामने खडी होकर आरती की थाल घुमाने लगी । सुदामा जी ने पूँछा ! देवी तुम कौन हो ? और मेरी आरती क्यूँ कर रही हो ? सुशीला ने कहा वाह महराज मित्र से मिलकर पत्नी को ही भूल गये ? जैसे ही सुदामा के कान मे सुशीला के शब्द पडे और अपनी नजर उनके मुख मण्डल पर डाली –पत्नीं वीक्ष्य विस्फुरन्तीं देवीं वैमानिकीमिवदासीनां निष्ककण्ठीनां मध्ये  भान्तीं स विस्मितः सुदामा आश्चर्यचकित अरे सुशीला तुम्हारे पास इतनी सुन्दर साडी ,गहने कहाँ से आये ?ये महल ,नौकर चाकर सब कैसे ?

सुशीला हंसने लगी –वाह महराज ! तो तुम्हारे मित्र ने तुम्हे कुछ बताया नही ? ये सब चमत्कार सब तुम्हारे मित्र द्वारिकाधीस ने ही किया है ।अब सुदामा जी के समझ मे आया -अरी सुशीला मेरा कन्हैया तो वास्तव मे घनश्याम है ।

आकाश के मेघ का भी नाम घनश्याम है । दोनो अपनी कृपा बरसाते रहते है । पर ये कभी नही सोचते कि जो मै कृपा कर रहा हुँ वह कोई जाने । प्रसंसा के लिये उनकी कृपा नही मिलती । मित्रो  भगवान की कृपादृष्टि तो हो रही है जो आत्मसमीक्षक है वह तो जान लेते है पर आज्ञान की तन्द्रा मे सोयें हुये जीव उस कृपादृष्टि का अनुभव नही कर पाते ।

मित्रो माँगो का कोई अन्त नही है ,इच्छाओ का कोई अन्त नही है ।अगर बनना है तो हम सुदामा की तरह बने । सीखना है तो सुदामा जी से सीखे ।पहले कुछ नही था तब भी प्रसन्न -आज  सब कुछ है तो परमात्मा की कृपा का अनुभव ।द्वारिका पुरी के समान सुदामापुरी प्रदान करके भगवान ने सुदामा की श्रेष्ठता सिद्ध कर दी और अपनी दीनबन्धुता सार्थक कर दी ।

बोलिये भक्त और भगवान की जय

मित्रो यथासम्भव सुदामाचरित्र को लिपिबध्य करने का प्रयास किया है । त्रुटियाँ और मानवीय भूल के लिये आप सभी बिद्वतजनो से छमा प्रार्थी ।इसमे मेरा अपना कुछ नही सब प्रभु का है और उन्ही के चरणो मे समर्पित

Welcome to Sudamapuri

Spiritual History

Sudama Temple is one of the revered sites of Gujarat. This temple is dedicated to Sudama who was the childhood friend of Lord Krishna. This temple is often visited by thousands of devotees particularly the newly married Rajasthani Kshatriya couples who visit the temple to take the blessing. Located at the centre of Porbandar, it is one exceptional temple in India which is dedicated to this great devotee of Lord Krishna.

Sudama Temple was constructed in 1902 and 1907 at the centre of the city. It is one of the historically significant sites in Gujarat. The construction of the temple was hampered to some extend by the depletion of the funds. As the money was less it was raised by collecting donations and organizing dramas to raise the fund. All the rich traders contributed funds which can be used in the construction of the temple. Though the architecture is not too lavish yet it is one of the well-built temples of Porbandar which is often visited by thousands of tourists and devotees. Built with white marble this temple has a number of carved pillars which decorate the temple, open from all sides this temple has a shikhara which is decorated with splendid architecture and carvings. These carvings are also visible above the pillars and the arches which adjoin the pillars. With such architecture this temple is dedicated to the shrine of Sudama which is built in simple structure.

  • World's One & Only Temple.
  • A true Friendship Historic Place.
  • Peaceful Environment.
  • A best Spiritual Place ever
Shri Sudamapuri

News of Shri Sudamapuri

500+ Year of Eshtablishment
100000+ visitors

Videos of shri Sudmapuri

For More Videos

Worshippers Of The Temple

Priests have been serving at Shri Sudamapuri Temple since the last 13th generation.

Image

Mahant Shri Kamaldas Ramavat

Mahant Shri & Developer
Image

Mahant Shri Ranchhod das Ramavat

Mahant Shri
Image

Mahant Shri Narendra das Ramavat

Mahant Shri
Image

Mahant Shri Manishdas Ramavat

Mahant Shri
Image

Mahant Shri Tejasdas Ramavat

Mahant Shri
Image

Mahant Shri Devarshidas Ramavat

Mahant Shri
Image

Mahant Shri Ghanshyamdas Ramavat

Mahant Shri
Image

Mahant Shri Parth Das Ramavat

Mahant Shri
Image

Mahant Shri Hiteshdas Ramavat

Mahant Shri

Sudmapuri On Maps

Take Easy Direction to visit Sudamapuri

Shri Sudamapuri

Photos of Shri Sudamapuri

Get In Touch

Contact Us

Need to know more on details. Get In Touch

E-Mail :- sudamapuritemple@gmail.com

Get Started

Welcome to Sudamapuri

Shri Sudamapuri Temple is one of the famous spiritual tourist place described from hindu shashtra and it is Birth place and Home place of Shri Sudama Family and its is only one place in whole india.

Visitors